Tuesday, 24 March 2015

सीमित मनुष्यत्व

मेरे साथ बहुत से लोग रेलवे-स्टेशन पर अपनी ट्रेन की प्रतीक्षा कर रहे थे| लोगो का आगमन बना हुआ था| भीड़ की धक्का-मुक्की सभी को एक असामान्य मंथर गति प्रदान कर रही थी और यही वजह थी कि वहां चैन बैठना तो दूर शान्ति से खड़ा होना भी मुश्किल था| इस वजह से मैं प्लेटफार्म से थोडा दूर निकल आया|

दूसरी जगह जाकर खड़ा ही हुआ था कि देखा कि एक महिला अपने दुधमुँहे बच्चे के साथ भीख मांगते हुए चली आ रही थी| मेरा मानना है क़ि हाथ फैलाकर भीख माँगना शायद संसार के सबसे मुश्किल कामों में से एक है| जब मनुष्य हाथ फैलाता है तो उसका स्वाभिमान उसकी हथेलियों से फिसलकर आपके पैरो में गिर जाता है| वो आपके पास इसीलिए आया है क्योंकि शायद आपसे पहले किसी और ने उसकी मदद नहीं की है| बहुत दूर से मांगती हुई चली आ रही उस स्त्री की स्थिति देख कर मन द्रवित हो गया और हाथ में कुछ रुपये निकल आये| वो लोगो से मांगती जा रही थी और लोग नकारते जा रहे थे| मेरा मन समाज की ऐसी उदासीनता देखकर बहुत खिन्न हुआ| मस्तिष्क ये मानने को तैयार नहीं था की ये समाज सच में पत्थर दिल है पर आँखों-देखी को झूठ मानना एक अपराध सा लग रहा था| वो स्त्री मेरे करीब आई और इससे पहले की वो हाथ फैलाती मैंने उसे पैसे दे दिए| दिल को थोडा सुकून मिला पर शान्ति नहीं|

ट्रेन का इंतज़ार अभी भी हो रहा था| समय बीता, मेरे आस-पास की जनता थोड़ी कम हुई | नया समूह इंतज़ार करने के लिए आया| किसी ने मुझसे पूंछा क़ि भाई-साहब ये ट्रेन आखिर कब आएगी| वहां पर काफी देर से इंतज़ार करने वाले बचे हुए कुछ चुनिंदा लोगो में से होने की वजह से मैंने उसके प्रश्न का उत्तर देना अपनी ज़िम्मेदारी समझी | मेरा वार्तालाप चल ही रहा था कि तभी थोड़ी दूरी पर एक वृद्ध भिखारी दिखाई दिया| उसके चेहरे से प्रतीत हो रहा था कि हर कदम पर उसको असहनीय तकलीफ हो रही थी | परन्तु जीवित रहने की इच्छा शायद प्रबल थी | वो कदम-कदम पर खड़े लोगों से कुछ आर्थिक मदद की दरकार की मांग कर रहा था | उनमें से कुछ ने उसकी मदद भी की | उसके कदम मेरी तरफ बढ़ रहे थे और इस बार मैं अपने व्यवहार में परिवर्तन का अनुभव कर रहा था | थोड़ी देर पहले तक जो मन द्रवित होकर उस महिला की मदद करने को आतुर था, जो संपूर्ण समाज पर उदासीन होने का आक्षेप लगा रहा था अब वही मन संशय में था| सदा चंचल मन तो इस सीमा तक सोंचने लगा कि ऐसे और कितने लोगों की मदद करूँगा ? मैं दान-वीर कर्ण नहीं हूँ |

मन मष्तिष्क में वाद-विवाद चल रहा था| प्रश्न यही था कि क्या ये उदासीनता स्थान और समय निर्भर है ? जब मैं पहली बार आकर प्लेटफार्म पर खड़ा हुआ था तब शायद मुझसे पहले से इंतज़ार करने वाले लोग किसी और की मदद कर चुके थे और इसीलिए जब उन्होंने महिला को देखा तो अपने आर्थिक दान करने की सीमिति क्षमता को स्वीकार कर लिया और उसे आगे बढ़ा दिया| मैं ये सब सोच ही रहा था कि वृद्ध मुझ तक आ पंहुचा | मैंने जेब टटोली पर दुर्भाग्यवश इतना धन नहीं निकाल पाया जितने से उस वृद्ध की पीड़ा कम हो जाती| वो मेरे सामने से लगभग घिसटते हुए आगे बढ़ गया पर मैं वहीँ खड़ा सोच रहा था कि- मनुष्य में मनुष्यत्व के सीमित होने की महत्त्वपूर्ण वजह समाज का आर्थिक विकास नहीं सामाजिक लोगों की आर्थिक तंगी है| 

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